गुरुवार, 30 जनवरी 2020

बिल्लियाँ कब शेर बनके छिप सकेंगी

खुद दुखी हो के पछाड़ें खा रहे हैं
सब गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं।

हाथ में डेली नमक की लग गई है
घाव दिल के सब उघाड़े जा रहे हैं।

बिल्लियाँ हैं शेर की मौसी सदा से
मांद सिंहों के उजाड़े जा रहे हैं।

शेर सब प्यारे खुदा को हो गए हैं  
दम लगा चूहे दहाड़े जा रहे हैं।

दाख़िला ले-देके जिनका हो गया था
ठोंक कर तालें अखाड़े आ रहे हैं।

भेड़िये कब भेड़ बनके छिप सकेंगे
देखें कबतक वे सिंघाड़े खा रहे हैं।

शायरी हमसे कही जाती नहीं अब
कोरे ही सफ़हात फ़ाड़े जा रहे हैं॥

~ चक्कू रामपुरी "अहिंसक"


मंगलवार, 27 अगस्त 2019

कामरेड चिंतातुर ठहरे

कामरेड को चिंता घर की
और चिंता है दुनिया भर की

बाल श्रमिक की चिंता करते
छोटू को चांटे भी जड़ते

चिंता उनको पुरुषवाद की
बीवी चार यथावत रखते

फ़ैक्ट्री में हड़ताल कराते
वेतन बाई का टरकाते

साम्यवाद वे ला के रहेंगे
कार पीयन से फ़्री चमकाते

बात ग़रीबों की करते हैं
धन निवेश अपना करते हैं

ब्राह्मण को वे रोग बताते
मंतर शादी में पढ़वाते

जन्मभूमि पर हॉस्पिटल
बनवाने को धरना धरते

दवा मुफ़्त में ला-लाकर के
जमा खूब लॉकर में करते

श्रीनगर में हुर्रियत की
फ़िकर बड़ी वे सो न पाते

बाल्टिस्तान से हॉङ्गकॉङ्ग तक
क्या होता यह खबर न पाते

स्त्री को अधिकार मिलें सब
दिखती पोलित ब्यूरो में कब?

कृषि पर न लगने देंगे कर
गमले में गल्ला उपजाकर

हर साथी को घर होना है
घर घर में हँसिया बोना है

रक्त बहे बिन लाल न धरती
लाल सलाम कहाँ से करती?

दुनिया में सब जान गये हैं
साम्यवाद पहचान गये हैं

बंदूकों से लोग गिराये
घर मंदिर इस्कूल जलाये

निजी स्वतंत्रता टैंक के नीचे
डिक्टेटर के भजन गवाये

मूर्ति भञ्ज के लोकतंत्र की
जनप्रतिनिधि सब अधम बताये

जनसेवक जमकर धमकाये
मार-मार कर ढेर लगाये

फिर किसको पूजेगी जनता
सो अपने ही बुत जड़वाये

चुरुट छोड़ सब जाग गये बुत
उखड़-उखड़ के भाग गये हैं

सुनता कोई न अब बेपर की
कामरेड को चिंता घर की।

~ चक्कू रामपुरी "अहिंसक"


शनिवार, 20 जुलाई 2019

एक अकेला इस शहर में

ऐशो-शोहरत की दुनिया में फिरते ये दुखियारे क्यों
दिन क्यों ढलता सूरज डूबे, छाये है अंधियारे क्यों

अपने में गुमसुम से हैं सब कोई किसको क्यों पूछे
काम नहीं जो आने वाला, उसको कोई पुकारे क्यों

डिस्पोज़ेबल दुनिया में हो ज़िकर मरम्मत का कैसे
जो भी फेंका जा सकता है उसको भला सँवारे क्यों

बंद कर दिया पीना, धोना, ब्राह्मणवाद नहाने का
बाढ़ बहाती फिर भी लेकिन नर-डंगर-घर-द्वारे क्यों

मानव हों या देश सभी से नाता तोड़ा जा सकता है
अधिकारों का शोर मचाओ, कर्त्तव्यों के नारे क्यों

महल बड़ा पर सिमट गया हूँ बेसमेंट के कोने में
पेट-पीठ सब एक हुये पर लेते सब चटखारे क्यों

~ चक्कू रामपुरी "अहिंसक"


रविवार, 20 जनवरी 2019

खस्ता शेर

हमने भी उसी कमबख्त से मोहब्बत की थी
जिसने खुद हमारी जान की सुपारी ली थी 🎶🎵🎼

- मुनीश शर्मा

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

चश्मे बद्दूर (उर्फ़ दीदारे यार)

- उस्ताद चक्कू रामपुरी 'अहिंसक'


काश चश्मा तुम्हारा हिल जाये
और ये आँख हम से मिल जाये

प्यार में है बहुत कुछ कहने को
पास आने पे मुख क्यों सिल जाये

एक पल की सौगात है लेकिन
उम्र भर को हमारा दिल जाये

इक नज़र जो पड़े मुहब्बत से
दिल हमारा पल में खिल जाये

दिल नहीं खोलते किसी से अब
घाव फिर से कहीं न  छिल जाये

सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

दोस्ती पर खस्ता दोहावली + राजनीति पर शेर

उस्ताद चक्कू रामपुरी 'अहिंसक'

अपनी अपनी दोस्ती, अपने अपने पीर
कोई हल्का रह गया कोई हुआ गम्भीर

जब तक हम चुप्पा रहे, दे गए चोट पे चोट
छिपके हम भी कट लिये न सहें खोट पे खोट

जो जो जिसके भाग में, पावै सो सो सोय 
चेरो आगे बढ़ गयो, क्यों गुर नाहक रोय

जब था फैलाना रायता तो धर दिया मिष्टी दही 
आप जैसे 'परग्रही*' अभियान में शामिल नहीं॥

खाट खड़ी तब जानिये, जब बंदा भू परि जाय
खीर पकी तब जानिये जब मुँह मीठा हो जाय

हमको पका सकें जो, वे हमें जोड़ते नहीं 
जो बच गये भोले, उन्हें हम छोड़ते नहीं

लिंक मांगकर खुश किये लिंक विज़िट करी नाहिं
रहिमन ऐसे मित्र को, कभी ब्लॉग दिखावत नाहिं

अब एक शेर दिल्ली शहर के राष्ट्रसंघ सम्राट के सम्मान में
खाँसियों का बड़ा सहारा है,
फाँसियों ने तो सिर्फ़ मारा है


*परग्रही = एलियन

मंगलवार, 21 मार्च 2017

खस्ता ग़ज़ल (३+२=५)

कटे किनारे कई भँवर मझधार मिले।  
पानी में सब डूबते भँइसवार मिले॥ (गिरिजेश राव)

घर तो छूटा ही बस्ती भी छूट गई, 
लवमैरिज में ऐसे रिश्तेदार मिले। (अनुराग शर्मा)   

बना स्कीम भागा कन्हैया फाँसी से,  
खुदकुशी पोस्टपोन बाहर इनार मिले। (गिरिजेश राव) 

रहम की मांग रहा था भीख जिनसे वो, 
हाकिम सभी जालिम व अनुदार मिले। (अनुराग शर्मा) 

चलता रहा आँख मीचे ऊँट क्षितिज तक,  
साँझ खोली पहाड़ों के अन्हार मिले। (गिरिजेश राव)