सोमवार, 30 जनवरी 2012

है दुनिया इन्हीं की ज़माना इन्हीं का

(अनुराग शर्मा)

कभी ये भी मालामाल थे
कभी इनके सर पे भी बाल थे
इन्हें आज की न मिसाल दो
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

ये मुँह तो शादी से बन्द है
पहले ये बहुत ही वाचाल थे
अब अपने आप ही क्या कहैं
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

लाजवाब और बेसवाल थे
ये ग़ज़लची चच्चा कव्वाल थे
बस इन्हींकी तूती थी बोलती
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

रिश्वत मैया के प्यारे लाल थे
पड़े काम तो करते हलाल थे
बख्शीश बिन न हिले कभी
कभी ये भी बन्दा कमाल थे

शनिवार, 21 जनवरी 2012

रसोई में कुत्ता आया

भूखा कुत्ता
फिल्मों के कई गीतों में 'खस्ता' टाइप के बोल सुनाई दे जाते हैं जैसे किसी एक गाने में यह पंक्ति है - तम्बाकू नहीं है कैसे कटेगी सारी रात, बुढ़िया रोये..। प्रश्न यह है कि ऐसा साहित्यिक कृतियों में भी होता होगा? उत्तर है - हाँ।
अपनी प्रसिद्ध रचना 'वेटिंग फ़ॉर गॉडो' में सैम्युअल बैकिट एक खस्ता रचना से हमें रूबरू कराते हैं। अनुवाद है - कृष्ण बलदेव वैद का।
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रसोई में कुत्ता आया 
चुरायी सूखी रोटी।
बावर्ची ने कलछ उठाया
और कर दी बोटी बोटी!
फिर सारे कुत्ते आये
रसोई में दौड़े दौड़े 
और क़बर खोद कर उसकी
लिख दिया उसी पर यह - 
'आने वाली कुत्ती नसलों के लिये'। 
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किसी भी स्पष्टीकरण के लिये आप सैम्युअल बैकिट या कृष्ण बलदेव वैद से सम्पर्क कर सकते हैं। नेट आप के पास है- पता सता खुद ढूँढ़ लीजिये। 
हाँ, इस रचना में परिवर्द्धन के लिये आप की पंक्तियाँ आमंत्रित हैं। 


मंगलवार, 3 जनवरी 2012

2012 की खस्ता शुभकामनायें!


(चचा ग़ालिब से क्षमा याचना सहित)
हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पर दम निकले
जहाँ पढने की बातें हों, वहाँ से बचके हम निकले
शराबी जूस भी लाये, मनाये ये कि रम निकले
मिले भुगतान जो तुमसे, गिने फिर भी वे कम निकले
लगा थैले में पैसे हैं, खुला तो फ़टते बम निकले
चचा सूरज से चमके थे, भतीजे हिम से जम निकले
[अभी का तापक्रम 10°F (शून्य से 12.22°C नीचे) है]