कमसिनी के ढेलामार
जोबन में हो गए कटार
वे काटें तो प्यार-मुहब्बत
हम बोलें तो अत्याचार
दूध की मक्खी झटक गए वे
जिन पर वारे थे घर बार
उम्र बढ़ी मन खाक बुढाया
ज्ञान की गंगा हो गई पार
कितना खोया कितना पाया
याद दुधारी है तलवार
गुरुवार, 31 मार्च 2011
गुरुवार, 17 मार्च 2011
सभ्य फगुनाहट
आज थोड़ी गम्भीर शृंगारिकता - स्वाद बदलने को :) आशा है आप लोग पसन्द करेंगे।
(1)
फागुन ने चूमा
धरती को -
होठ सलवट
भरा रास रस।
भिनसारे पवन
पी गया चुपके से -
.. खुलने लगे
घरों के पिछ्ले द्वार ।
(2)
फागुन की सिहरन
छ्न्दबद्ध कर दूँ !
कैसे ?
क्षीण कटि -
गढ़न जो लचकी ..
कलम रुक गई।
(3)
तूलिका उठाई -
कागद कोरे
पूनम फेर दूँ।
अंगुलियाँ घूमीं
उतरी सद्यस्नाता -
बेबस फागुन के आगे।
मंगलवार, 15 मार्च 2011
भंग की तरंग में कुछ पंक्तियाँ
कुछ गाने को दिल करता है, सुना लूँ?
तालियाँ बजाओगे या रामपुरी निकालूँ?
दिल के बहाने कहीं ले न उडें चुप के
ज़रा सा रुक जाओ, बटुआ छिपा लूँ
जिनकी होनी थी उन सबकी हो ली
मस्ती में मैं भी तो रंग में नहा लूँ
लाज की लाली से लाल हो रहे हैं जो
उन गालों से थोडा सा रंग चुरा लूँ?
बुरा न मानो होली है!
[चित्र एवम् पंक्तियाँ: अनुराग शर्मा]
इस खस्ता शायरी का होली के हुल्लड वाला स्वरूप ताऊ रामपुरिया के गरही सम्मेलन में सुना जा सकता है।
इस खस्ता शायरी का होली के हुल्लड वाला स्वरूप ताऊ रामपुरिया के गरही सम्मेलन में सुना जा सकता है।
गुरुवार, 3 मार्च 2011
नुक्कड़ कविता
प्रस्तुत है एक नुक्कड़ कविता। फागुन महीने में जोगीरों की तरह ही इसे 'इंटरैक्टिव' शैली में बढ़ाया जा सकता है, कोशिश कीजिये आप लोग भी!
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा?
बोटी ... भौं भौं।
लेग पीस, ब्रेस्ट पीस
मीट ही मीट
बहुत कचीट।
नोच लिया
चबा लिया
निगल लिया ..
तुम्हरे खातिर।
लो अब
कटरकट्ट हड्डी
बोटी ... भौं भौं।
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा?
डंडा ... भौं भौं।
गाँठ गाँठ पिलाई
महँगी चिकनाई
भाये जो जीभ।
पीट लिया
जीत लिया
तोड़ दिया ...
तुम्हरे खातिर।
उछाल दिया
लै आव बड्डी
डंडा ... भौं भौं।
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा?
कूँ कूँ... कूँ कूँ।
जी कहूँ
दुलार कहूँ
रहोगे कुत्ते ही।
पूँछ तो हिलाओ!
कूँ कूँ ... कूँ कूँ।
शाबास!
बैठे रहो यूँ ही
रहोगे कुत्ते ही।
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
सदस्यता लें
संदेश (Atom)