प्रस्तुत है एक नुक्कड़ कविता। फागुन महीने में जोगीरों की तरह ही इसे 'इंटरैक्टिव' शैली में बढ़ाया जा सकता है, कोशिश कीजिये आप लोग भी!
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
बोटी ... भौं भौं। 
लेग पीस, ब्रेस्ट पीस 
मीट ही मीट 
बहुत कचीट।
नोच लिया
चबा लिया 
निगल लिया .. 
तुम्हरे खातिर। 
लो अब 
कटरकट्ट हड्डी 
बोटी ... भौं भौं। 
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
डंडा ... भौं भौं। 
गाँठ गाँठ पिलाई 
महँगी चिकनाई 
भाये जो जीभ। 
पीट लिया 
जीत लिया 
तोड़ दिया ... 
तुम्हरे खातिर। 
उछाल दिया 
लै आव बड्डी 
डंडा ... भौं भौं। 
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
कूँ  कूँ... कूँ  कूँ। 
जी कहूँ
दुलार कहूँ 
रहोगे कुत्ते ही।
पूँछ तो हिलाओ! 
कूँ कूँ ... कूँ कूँ। 
शाबास! 
बैठे रहो यूँ ही 
रहोगे कुत्ते ही। 
कुत्ते जी, कुत्ते जी!  
4 टिप्पणियाँ:
wah wah wah
ha ha ha
kamal kar diya
पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी.
शाबास!
बैठे रहो यूँ ही
रहोगे कुत्ते ही।
कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बहुत बढ़िया! कुत्ते जी तो चैन से बैठे हैं १२ बरस से!
सारे कुत्ते पहचान जायेंगे :-))
बाज नहीं आते हो इन्हें तंग करने से ....होली पर बाहर नहीं निकलना आजकल तो राजपथ से लेकर जनपथ तक इनकी बहार है ! :-(
शुभकामनायें होली पर
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आते जाओ, मुस्कराते जाओ!