शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

यूँ भी तो हो - एक इच्छा - एक कविता

काजू सड़ते शराब हो जाते
गदहे सज के नवाब हो जाते

पानी खेतों में पड़ गया होता
गेंहूँ खिल के गुलाब हो जाते

हमें साफा व सूट फिट आता
खुद ही कटके कबाब हो जाते

इश्क़ में सर नहीं गंवाते हम
तेरे दिल की किताब हो जाते

ढूंढते आप पर न मिलता मैं
पल में सारे हिसाब हो जाते

.-=<>=-.

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

16-11...मात्रायें ;)

जोर जोर से पीटो भाया, दागी हमरी पीठ
देख तमाशा जूते खायें, जबरी हमरी दीठ।

लोटा हमरा बौत पवित्तर, मैली रहती जींस
सड़क किनारे निपटें हरदम, हम हैं बड़के ढीठ।

घर में बसते देव सभत्तर, आँगन में हैं पीर
सड़क किनारे कूड़ा फेंकें, पूजा हमसे सीख।

बाइक बैठें बीड़ी फूँकें, चौराहे के मीत
पप्पा कहते करिअर महँगा, गुटका सस्ती पीक।