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गुरुवार, 30 जनवरी 2020

बिल्लियाँ कब शेर बनके छिप सकेंगी

खुद दुखी हो के पछाड़ें खा रहे हैं
सब गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं।

हाथ में डेली नमक की लग गई है
घाव दिल के सब उघाड़े जा रहे हैं।

बिल्लियाँ हैं शेर की मौसी सदा से
मांद सिंहों के उजाड़े जा रहे हैं।

शेर सब प्यारे खुदा को हो गए हैं  
दम लगा चूहे दहाड़े जा रहे हैं।

दाख़िला ले-देके जिनका हो गया था
ठोंक कर तालें अखाड़े आ रहे हैं।

भेड़िये कब भेड़ बनके छिप सकेंगे
देखें कबतक वे सिंघाड़े खा रहे हैं।

शायरी हमसे कही जाती नहीं अब
कोरे ही सफ़हात फ़ाड़े जा रहे हैं॥

~ चक्कू रामपुरी "अहिंसक"


रविवार, 20 जनवरी 2019

खस्ता शेर

हमने भी उसी कमबख्त से मोहब्बत की थी
जिसने खुद हमारी जान की सुपारी ली थी 🎶🎵🎼

- मुनीश शर्मा

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

चश्मे बद्दूर (उर्फ़ दीदारे यार)

- उस्ताद चक्कू रामपुरी 'अहिंसक'


काश चश्मा तुम्हारा हिल जाये
और ये आँख हम से मिल जाये

प्यार में है बहुत कुछ कहने को
पास आने पे मुख क्यों सिल जाये

एक पल की सौगात है लेकिन
उम्र भर को हमारा दिल जाये

इक नज़र जो पड़े मुहब्बत से
दिल हमारा पल में खिल जाये

दिल नहीं खोलते किसी से अब
घाव फिर से कहीं न  छिल जाये

मंगलवार, 21 मार्च 2017

खस्ता ग़ज़ल (३+२=५)

कटे किनारे कई भँवर मझधार मिले।  
पानी में सब डूबते भँइसवार मिले॥ (गिरिजेश राव)

घर तो छूटा ही बस्ती भी छूट गई, 
लवमैरिज में ऐसे रिश्तेदार मिले। (अनुराग शर्मा)   

बना स्कीम भागा कन्हैया फाँसी से,  
खुदकुशी पोस्टपोन बाहर इनार मिले। (गिरिजेश राव) 

रहम की मांग रहा था भीख जिनसे वो, 
हाकिम सभी जालिम व अनुदार मिले। (अनुराग शर्मा) 

चलता रहा आँख मीचे ऊँट क्षितिज तक,  
साँझ खोली पहाड़ों के अन्हार मिले। (गिरिजेश राव)  

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

इधर खुदा है उधर खुदा है

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 11)

भावार्थ:  जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं ।


दो फुटकर खस्ता शेर मरम्मत के इंतज़ार में बैठे हैं। हर मुनासिब पेशकश कुबूल की जाएगी. अर्ज़ किया है:

कैसे कहूँ खुदा नहीं करता है मुझको याद
हर  पंगा  मेरे  साथ ही  लेता  रहा  है  वह

कैसे कहूँ खुदा नहीं करता है मुझको मात
हर बाज़ी मेरे साथ ही क्यूँ खेला करे है वो

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

महाकवि फत्ते के बेढंगे दोहे

बड़े बड़ाई ना तजें, मन में रहे फितूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।

चलता राही देख के, कउवा रहा हर्षाय
कपड़ों पर बीट की, जोरू पीटे दौड़ाय।

फत्ते सुमिरन ना करे दुख पाए दिन रात
जब भी गैस खत्म हो, खाये बासी भात।

बैठी चिड़िया डार पर, गाए अजब सा राग
सारे बटन नोच गई, दर्जी तक पहुँचो भाग।

फत्ते माला ना जपो, जीवे तुम्हरी हीर
रटते रटते चुप हुई, अंगुली गठिया पीर।