गिरिजेश राव के प्रोफाइल पर शीर्षक वाली पंक्ति देखी तो चार लाइनाँ मुखरित हुईं - प्रस्तुत है
तेरा मिलना न जाने क्यों खोना ही है
हाथ कभी मिल जाये तो धोना ही है
आम, पपीते के भाव गिरा देगा
पेड बबूल का जिसे बोना ही है
सुबह उठने की क्या बात है भाया
शाम ढले फिर जब सोना ही है
ज़िन्दगी दद्दू की कटेगी डिस्को में अब
मन्दाकिनी समझा जिसे मैडोना ही है
सूखी खानी हो तो मूंगफली खाओ
बादाम खाने से पहले भिगोना ही है।
ख्वाबों की हक़ीकत जब से जानी मैंने
मेरा हंसना न जाने क्यों रोना ही है
8 टिप्पणियाँ:
एक मूँगफली ऐसी भी होती है जिसको खाने के बाद आदमी यही कहता है - तेरा ना होना होना ही है। जरा देखिए:
मूँगफली
ख्वाबों की हक़ीकत जब से जानी मैंने
मेरा हंसना न जाने क्यों रोना ही है
क्या बात है! अन्तिम शेर ने तो गम्भीर कर दिया.
ज़िन्दगी दद्दू की कटेगी डिस्को में अब
मन्दाकिनी समझा जिसे मैडोना ही है
दद्दु को भी लपेट दिए,
उम्दा शेरों के लिए आभार
बेमिसाल मूंगफलियाँ
सार्थक लेखन के लिये आभार एवं “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।
जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव भी जीते हैं, लेकिन इस मसाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये यह मानव जीवन अभिशाप बन जाता है। आज मैं यह सब झेल रहा हूँ। जब तक मुझ जैसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यही बडा कारण है। भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस षडयन्त्र का शिकार हो सकता है!
अत: यदि आपके पास केवल दो मिनट का समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये।
http://umraquaidi.blogspot.com/
आपका शुभचिन्तक
“उम्र कैदी”
लेखन के लिये “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।
जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव जीते हैं, लेकिन इस समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये मानव जीवन ही अभिशाप बन जाता है। अपना घर जेल से भी बुरी जगह बन जाता है। जिसके चलते अनेक लोग मजबूर होकर अपराधी भी बन जाते है। मैंने ऐसे लोगों को अपराधी बनते देखा है। मैंने अपराधी नहीं बनने का मार्ग चुना। मेरा निर्णय कितना सही या गलत था, ये तो पाठकों को तय करना है, लेकिन जो कुछ मैं पिछले तीन दशक से आज तक झेलता रहा हूँ, सह रहा हूँ और सहते रहने को विवश हूँ। उसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह आप अर्थात समाज को तय करना है!
मैं यह जरूर जनता हूँ कि जब तक मुझ जैसे परिस्थितियों में फंसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, समाज के हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यह भी एक बडा कारण है।
भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस प्रकार के षडयन्त्र का कभी भी शिकार हो सकता है!
अत: यदि आपके पास केवल कुछ मिनट का समय हो तो कृपया मुझ "उम्र-कैदी" का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।
थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा।
http://umraquaidi.blogspot.com/
उक्त ब्लॉग पर आपकी एक सार्थक व मार्गदर्शक टिप्पणी की उम्मीद के साथ-आपका शुभचिन्तक
“उम्र कैदी”
सार्थक लेखन या लेखन? दोनों में से कौन सही है?
अभिषेक ओझा ने कहा… सार्थक लेखन या लेखन? दोनों में से कौन सही है?
क्यों गज़ब करते हो भाई - पहले बताओ कि
आपका शुभचिन्तक या शुभचिन्तक? दोनों में से कौन सही है?
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