रविवार, 14 अक्तूबर 2012

खस्ता गज़ल - आहिस्ता आहिस्ता

लटकते जाये हैं गुले गाल आहिस्ता आहिस्ता
सफेदी चरने लगी डाई खिजाब आहिस्ता आहिस्ता।

बुढ़ाने लगे जब वो तो हमसे कर लिया परदा
झुर्रियाँ आईं चकाचक, टुटे दाँत आहिस्ता आहिस्ता।

अब के पैरों को सलामत मत दबाना जोर से
उंगलियाँ चटकें तुम्हारी, मैं कहूँ आहिस्ता आहिस्ता।

उनसे मिलने की तड़प में हम जो जागे रात भर
खाँसियाँ बढ़ती गईं, फूली साँस आहिस्ता आहिस्ता।

पहले उनके बुलाने से तैयार होते थे तुरत
रंग में देरी बहुत चढ़े खिजाब आहिस्ता-आहिस्ता।

अब के सावन में वो झूले ना पड़ेंगे डार पर
हड्डियाँ तड़क चुकीं, कमर कमान आहिस्ता आहिस्ता।


पहले वे जो पकातीं खा जाते थे गपक
लपलपी अब जीभ ढूंढ़े है बत्तीसी आहिस्ता आहिस्ता।
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(नकलनवीश वस्तादों से क्षमा। मीटर ले कर नापने वाले अपना रास्ता नापें या तवक्कुफ, तरबाना, सरबाना तफलीब-ए-तरन्नुम में खुदे कर के पर्ह लें)