मंगलवार, 28 सितंबर 2010

वीर तुम ...धीर तुम

वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

हाथ में कलम रहे नेट खुशफहम रहे
तू कभी रुके नहीं सत्तू कभी मुके नहीं
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

सामने पहाड़ हो शेरनी दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
ब्लॉगभूमि के लिये, दही दिमाग के लिये
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !

अन्न गृह में भरा वारि नल में भरा
बरतन खुद निकाल लो खाना खुद बना लो
वीर तुम लिखे चलो ! धीर तुम रचे चलो !


रविवार, 26 सितंबर 2010

वो आए घर हमारे, हाय रे!

वो आए घर हमारे
कर गए हजम 
प्लेट के बिस्कुट सारे। 

हाल चाल चली  
बोल बाल हुई 
डिनर तक रात गई
हमने पूछा जो खाना
चट से उठ कर सकारे। 
हाय रे! 

चार दिन के बराबर 
रोटियाँ जो पकाईं 
बीवी बमकी 
मुझे झुरझुरी सी आई। 
मैं हाथ धो भी लिया
उनको लाज न आई ।

मिलते रहे पसीने के धारे 
खा कर उठे वो 
मेहनती गुँथाई  
लेते रहे डबलिया डकारें। 

कह गए चलते चलते 
रोटियाँ थीं मोटी और 
बिस्कुट कम करारे। 
हाय रे!   
  

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

ईर, वीर, फत्ते के परेमपत्तर

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एक रहेन ईर, एक रहेन वीर, एक रहेन फत्ते।

ईर कहेन वीर से - चलो परेमपत्तर  लिखा जाई 
वीर कहेन फत्ते से - चलो परेमपत्तर  लिखा जाई 
ईर लिखे एक ठो 
वीर लिखे दू ठो 
फत्ते लिखे पूरी रमयनी। 

ईर कहेन वीर से - चलो परेमपत्तर दिया जाई 
वीर कहेन फत्ते से - चलो परेमपत्तर दिया जाई 
ईर दिएन अपनी वाली को 
वीर भी दिएन अपनी वाली को 
फत्ते की कोई थी ही नहीं! 
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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जीवन की राहें - एक खस्ता पैरोडी

पाठकों की बेहद मांग का आदर करते हुए एक बासी कचौड़ी उबालकर प्रस्तुत है

आलू भरी वो, कचौडी बनाएं
ख़ुद भी खाएं, हमें भी खिलाएं
आलू भरी वो...

भरवां करेले नहीं माँगता हूँ
पूरी औ' छोले नहीं माँगता हूँ
पत्तों की चटनी बनाकर वो लायें
ख़ुद भी चाटें, हमें भी चटायें
आलू भरी वो...

कैसे बताऊँ मैं भूखा नहीं
खा लूंगा मैं रूखा सूखा सही
मुझको न थाली सुनहरी दिखाएँ
ख़ुद भी खाएं, हमें भी खिलाएं
आलू भरी वो...

अरे पता है कि चित्र में कचौडी नहीं परांठा है - जभी तो कचौडी की तमन्ना है

आपके खस्ता शेरों का स्वागत है - शर्त इतनी है कि शेर आपके अपने हों - और अगर औटो या ट्रक वाले के हैं तो ट्रैफिक पुलिस का अनुमतिपत्र साथ में नत्थी हो। 
धन्यवाद!
[चाय का प्याला और आलू परांठा का चित्र - अनुराग शर्मा द्वारा :: The tea mug and aloo parantha photograph by Anurag Sharma]

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कंजूस दोस्त के लिए थोड़ा दुआत्मक हो लें!

ये रहे कुछ फटीचर से शेर:

तुम्हारी जुस्तजू रहे, अदा रहे, गड़ा रहे 
दुआ बस यही कि तू यूँ ही सड़ा रहे। 

हसीं शामें हों, दिलरुबा हो, मैकदा हो 
दुकान पर पेमेंट को तू यूँ ही अड़ा रहे। 

तरन्नुम, तकल्लुफ, तवक्कुफ, उफ उफ 
सब सनम के, तू नाली में यूँ पड़ा रहे।

गिर गईं कितनी चवन्नियाँ फटी जेब से 
रुपयों के आगे तू लिए कटोरा खड़ा रहे। 

जो फँस जाती है हमेशा जीन्स की जेब में 
फटे पर्स उसमें बस बिल कोई बड़ा रहे।   

रविवार, 5 सितंबर 2010

सच्‍चा बच्‍चा

मौलिकता की इस दौड में
भौतिकता की ओट में
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
तू सोचे मैं दे दूं गच्‍चा
और मैं सोचूं मैं दे दूं गच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

जीवन की चकाचौंध में
उठापटक की इस दौड में
रेलमपेल के इस खेल में
भ्रष्‍टाचार के इस दौर में
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

पहचान छुपा कर खुला घूमता
हम्‍मामों में खुद को ढूंढता
ओढी मुस्‍कानों में बेशर्मी समेटता
झूठी दिखाते शान मुंह छिपा जेब टटोलता
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

घर में रोते बच्‍चे औरतें
तू शान से मुंह उठाता घूमता
दिल में नहीं दम पर
ठाठ से धुंए के छल्‍ले उडाता
गम देकर जमाने को
शान से दारु पीकर गम भुलाता
न तू सच्‍चा है न मैं सच्‍चा
क्‍यों सच है न बच्‍चा?

शनिवार, 4 सितंबर 2010

थकी हुई शायरी - तड़पते अश'आर

साहेबान, मेहरबान, पहलवान, खानदान, मसालदान,

अगर आपको दरकार है आला दर्ज़े की शायरी की तो चलते फिरते नज़र आइये क्योंकि उस किताबी शायरी की दुकान तो हमने बढा दी है (वरना बाकी शायर भूखे मर जाते न भई!)

हाँ अगर हल्की फुल्की चल्ताऊ, ऑटो रिक्शा छाप शायरी सुनने की इच्छा है, तो बिल्कुल सही ठिये पर आये हैं आप।

शायरी सुनाऊंगा ऐसी धांसू ।
कि सुनके आ जायेंगे आंसू॥

और हाँ, एक बात समझ लें आप, पहले से बताये दे रहा हूँ, कहीं बाद में शिकवा शिकायत कन्ने बैठ जायें, हाँ नईं तो! हियाँ कोई जोक-वोक नहीं सुनाया जायेगा, अलबत्ता चरपरे चुटकुलों की बात अगल्ल है, वो चलेंगे, अरे दौडेंगे भई दौडेंगे।

अगर आपको भी ऑटो रिक्शा में बिला मीटर ठगे जाते वखत कोई धांसू शेर पढने का मौका मिलता है तो हमारे साथ ज़रूर बांटिये।

तो तैयार हो जाइये कफन बांध के कि हम आज की मजलिस की शम्मा का आगाज़ करते हैं:

हम थे जिनके सहारे...
हम थे जिनके सहारे...

हमारे खोम्चे में सभी कुछ है - खस्ता शेर, कागज़ी गोलगप्पे, और किताबी पानीपूरी

अरे अब नीचे इसकिरोल भी करो न, आगे का कलाम सुन्ना नईं है क्या?

हम थे जिनके सहारे
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...

दर्द किससे कहें हम
दर्द कैसे सहें हम
दर्द में क्यों रहें हम
दर्द से कौन उबारे...

हम थे जिनके सहारे...
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...



अगली कडी तक के लिये खुदा हाफिज़! फिर मिलेंगे, गुड बाय, टाटा, हॉर्न प्लीज़!

[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]