महंगे की राह छोड़ कर सस्ती तरफ चले
चीज़ें वही लें यार हम जो जो मुफत मिले
सौदे में लेन लेन हो देना न हो कभी
देने की बात आये तो फर्जी डगर चले
भूखों में बाँट दें अनाज ऐसे गधे नहीं
गोदाम में भले वही बरसों बरस गले
हम चढ़ रहे हैं ऊपरी सीढ़ी हरेक रोज़
फुकरे फकीर चाहें तो सौ बार अब जले
(संशोधित संस्करण - आगे की पंक्तियाँ गिरिजेश की टिप्पणी के बाद)
मुफ्ती कबाब मुफ्ती शबाब मुफ्ती सबाब है
मुफ्ती मिले शराब क्या हीरा भी चाट ले
भजनो अज़ान से इन्हें फुर्सत कहाँ हुज़ूर
मज़हब के नाम पर भले कटते रहें गले
माल-ए-मुफत ने कर दिया बेरहम जनाब
मुफ्तियों का क्या जो राह-ए-हवस चले
3 टिप्पणियाँ:
इन्हें कोई पूरा करो भाई!
"मुफत में जो मिले तो जहर फाँक लें
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मुफ्तियों का क्या जो राह-ए-सबर चलें"
दिखाएंगे हजार बार, अंधों का आईना
एक कदम तुम चलो,एक कदम हम चलें
मेरा की बर्ड खराब है नहीं टी तुकबंदी करता अब कैसे बताऊँ कि कौन कौन हर्फ़ गायब है : { वह दीखता नहीं जब गायब ही है पुरी एक पस्त बिना ४ हर्फ़ के पूरी की है
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आते जाओ, मुस्कराते जाओ!