शनिवार, 20 अगस्त 2011

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे

(शीर्षक हरिशंकर परसाई की एक कृति से साभार)

समय चला पर चले नहीं हम
कम्प हुआ पर हिले नहीं हम

प्याज़ के छिलके छील रहे हैं
रहते छिपकर मिले नहीं हम

हिमयुग आते जाते रहते
बर्फ़ गली पर गले नहीं हम

रिश्वत, लेते हैं तो देते भी हैं
फिर भी कहते भले नहीं हम

अनशन धरने बहुत हुए पर
कितना टाला, टले नहीं हम

(अनुराग शर्मा)

हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।
~बहादुर शाह ज़फर (1775-1862)

5 टिप्पणियाँ:

मनोज कुमार ने कहा…

समसामयिक पोस्ट।

केवल राम ने कहा…

रिश्वत लेते हैं तो देते भी हैं
फिर भी कहते भले नहीं हम

सम्यक और सार्थक भावों से ओतप्रोत इस रचना को हम सभी के साथ साँझा करने के लिए आपका आभार

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

हर हाल में जिनके वारे-न्यारे,
वही हमारे, उन्हीं के हैं हम।

abhi ने कहा…

वाह!!क्या बात है :) :)

दिलीप कवठेकर ने कहा…

Vaah kyaa khoob kahee hai,

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