बरेली के एक शिक्षक कवि श्री ग्रिन्दलाल जी ने आपात्काल पर एक गीत रचा था, "कैसे झूलें रानी, खिसक गया पटरा।" होलिकादहन की रात्रि पर जलते हुए पटरे देखकर उनके शब्द याद आ गये और साथ ही याद आया होलिका मैया का आत्मविश्वास। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:
कुँवरि चुटैल हैं अब झूल न सकेंगी
और कोई झूलै तो पटरा खींच लेंगी
जीतने का दम नहीं हार उनकी तय है
चीख-चीख आकाश सिर पे ले धरेंगी
आग दिल में है नहीं आँच कैसे होगी
प्रह्लाद मरे कैसे धुआँधार ही करेंगी
अपनों में दोष कभी दानव न देखते
पाप खुद करें आरोप भक्त पे मढेंगी
भाई का राज कई बकरे सजातीं रोज़
रक्तपान में आनन्द क़ुर्बान वे करेंगी
होलिका के दर्शन को बौराये मत घूमो
इस जहाँ में अब कभी पग नहीं धरेंगी
असुरों के खानदान का अंत दूर नहीं
प्रह्लाद मार रहीं जल के खुद मरेंगी॥
होलिका दहन की तैयारी |
और कोई झूलै तो पटरा खींच लेंगी
जीतने का दम नहीं हार उनकी तय है
चीख-चीख आकाश सिर पे ले धरेंगी
आग दिल में है नहीं आँच कैसे होगी
प्रह्लाद मरे कैसे धुआँधार ही करेंगी
अपनों में दोष कभी दानव न देखते
पाप खुद करें आरोप भक्त पे मढेंगी
भाई का राज कई बकरे सजातीं रोज़
रक्तपान में आनन्द क़ुर्बान वे करेंगी
होलिका के दर्शन को बौराये मत घूमो
इस जहाँ में अब कभी पग नहीं धरेंगी
असुरों के खानदान का अंत दूर नहीं
प्रह्लाद मार रहीं जल के खुद मरेंगी॥
3 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी प्रस्तुति ... होलिका की तरफ से पहली रचना पढ़ी है ...
होली की शुभकामनायें
होली में सब अपने हाथ साफ़ कर लें...बधाई !
बहुत बढिया प्रस्तुति,नवस्येष्टि पर्व की हा्र्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई
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