बुधवार, 14 मार्च 2012

चौपद



मुद्दत के बाद की मेहरबानी, जब इश्क़ पर भरोसा ही न बचा 

दौड़ा दिये खच्चरों को रेस में, बोझ ढोने को यह गधा ही बचा

सजग रहना न होना मशरूफ, अब चलेगी दुलत्ती और जोर से 

देर से सही अक्ल गई है खुल, भाँपने को कोई इरादा न बचा।

5 टिप्पणियाँ:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - मेरा सामान मुझे लौटा दो - ब्लॉग बुलेटिन

Smart Indian ने कहा…

@ये खच्चरों को रेस में, बोझ ढोने को यह गधा ही बचा ...

वाह!

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत खूब!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

:)
वक्त पर काम आते हैं खच्चर मेरे
हमने रख्खे थे काबुल के घोड़े बहुत।

Asha Joglekar ने कहा…

वाह जी रोज के काम के तो गधे और खच्चर ही होते हैं ।

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आते जाओ, मुस्कराते जाओ!