मौलिकता की इस दौड में 
भौतिकता की ओट में 
न तू सच्चा है न मैं सच्चा
तू सोचे मैं दे दूं गच्चा 
और मैं सोचूं मैं दे दूं गच्चा 
क्यों सच है न बच्चा?
जीवन की चकाचौंध में 
उठापटक की इस दौड में 
रेलमपेल के इस खेल में 
भ्रष्टाचार के इस दौर में 
न तू सच्चा है न मैं सच्चा 
क्यों सच है न बच्चा?
पहचान छुपा कर खुला घूमता 
हम्मामों में खुद को ढूंढता 
ओढी मुस्कानों में बेशर्मी समेटता 
झूठी दिखाते शान मुंह छिपा जेब टटोलता 
न तू सच्चा है न मैं सच्चा 
क्यों सच है न बच्चा?
घर में रोते बच्चे औरतें 
तू शान से मुंह उठाता घूमता 
दिल में नहीं दम पर 
ठाठ से धुंए के छल्ले उडाता 
गम देकर जमाने को 
शान से दारु पीकर गम भुलाता 
न तू सच्चा है न मैं सच्चा 
क्यों सच है न बच्चा?
 
2 टिप्पणियाँ:
न तू सच्चा है न मैं सच्चा
तू सोचे मैं दे दूं गच्चा
और मैं सोचूं मैं दे दूं गच्चा
क्यों सच है न बच्चा?
वाह वाह! आह आह!
सच्चा बच्चा, अकल का कच्चा?
गच्चा ही गच्चा!
एक टिप्पणी भेजें
आते जाओ, मुस्कराते जाओ!