(शीर्षक हरिशंकर परसाई की एक कृति से साभार)
समय चला पर चले नहीं हम
कम्प हुआ पर हिले नहीं हम
प्याज़ के छिलके छील रहे हैं
रहते छिपकर मिले नहीं हम
हिमयुग आते जाते रहते
बर्फ़ गली पर गले नहीं हम
रिश्वत, लेते हैं तो देते भी हैं
फिर भी कहते भले नहीं हम
अनशन धरने बहुत हुए पर
कितना टाला, टले नहीं हम
(अनुराग शर्मा)
हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।
~बहादुर शाह ज़फर (1775-1862)
5 टिप्पणियाँ:
समसामयिक पोस्ट।
रिश्वत लेते हैं तो देते भी हैं
फिर भी कहते भले नहीं हम
सम्यक और सार्थक भावों से ओतप्रोत इस रचना को हम सभी के साथ साँझा करने के लिए आपका आभार
हर हाल में जिनके वारे-न्यारे,
वही हमारे, उन्हीं के हैं हम।
वाह!!क्या बात है :) :)
Vaah kyaa khoob kahee hai,
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